"जीवित्पुत्रिका व्रत: संतान की लंबी उम्र और सुख-समृद्धि का पर्व"

 *  प्रस्तावना  *

भारत की संस्कृति में व्रत-उपवास का विशेष महत्व हैं| हर व्रत न केवल धार्मिक आस्था से जुड़ा होता हैं बल्कि इसके पीछे सामाजिक और पारिवारिक दृष्टिकोण भी गहराई से जुड़े होते हैं| इन्ही व्रतों में से एक हैं जीवित्पुत्रिका व्रत ( Jivitputrika Vrat ), जिसे माताएं अपने बच्चों की लंबी आयु और उनके स्वस्थ जीवन की कामना के लिए करती हैं| यह व्रत उत्तर भारत, खासकर बिहार, उत्तरप्रदेश, झारखंड और नेपाल में बड़े पैमाने पर किया जाता हैं| इसमें माताएं 24 घंटे तक निर्जला उपवास करती हैं यानी न जल पीती हैं, न अन्न खाती हैं| उनका संकल्प केवल यही होता हैं कि उनके पुत्र-पुत्रियों का जीवन लंबा सुखमय और समृद्ध बने|



जीवित्पुत्रिका व्रत की खासियत यह हैं कि यह मातृत्व और संतान के प्रति माँ के अपार प्रेम का प्रतीक हैं| यह व्रत न केवल धार्मिक मान्यता रखता हैं बल्कि समाज को यह संदेश भी देता हैं कि संतान का जीवन माँ के लिए कितना अनमोल होता हैं| प्राचीन समय से लेकर आज तक यह व्रत निरंतर किया जाता हैं और इसका महत्व समय के साथ और बढ़ गया हैं|

इस ब्लॉग में आईए हम विस्तार से जानते हैं कि जीवित्पुत्रिका व्रत कब शुरू हुआ, किसने शुरू किया, इसकी मान्यता क्या हैं इसे करने से क्या लाभ होते हैं|

1. जीवित्पुत्रिका व्रत कब शुरू हुआ?:-

जीवित्पुत्रिका व्रत की शुरुआत प्राचीन काल से मानी जाती हैं| हिंदू धर्म में संतान की लंबी उम्र और उनके सुखी जीवन की कामना के लिए माताओं द्वारा कई व्रत किए जाते हैं, लेकिन जीवित्पुत्रिका व्रत विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं| इसका उल्लेख पुरानी कथाओं और लोक परम्पराओं में मिलता हैं| माना जाता हैं कि यह व्रत महाभारत काल से प्रचलित हैं| उस समय माताओं के बीच यह विश्वास था कि व्रत और उपवास के माध्यम से संतान की आयु पर आने वाले संकटों को टाला जा सकता हैं| धीरे-धीरे यह व्रत उत्तर भारत के विभिन्न राज्यों में लोकप्रिय हो गया| खासकर बिहार, उत्तरप्रदेश, झारखंड और नेपाल में इसे बड़े भाव से मनाया जाने लगा| यह व्रत भद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की षष्ठी तिथि को रखा जाता हैं, जो आमतौर पर सितंबर महीने में आती हैं| शुरुआत में यह केवल पुत्रों के लिए किया जाता था, लेकिन समय के साथ इसकी परंपरा पुत्र-पुत्री दोनों के लिए होने लगी| इस व्रत ने मातृत्व की महानता को एक विशेष पहचान दी और आज भी महिलाएं पूरी आस्था के साथ इसे निभाती हैं|

2. जीवित्पुत्रिका व्रत सबसे पहले किसने रखा?:-

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, जीवित्पुत्रिका व्रत सबसे पहले राजा जीमूतवाहन की माता ने रखा था| जीमूतवाहन नागवंश के एक राजा थे, जो अपने धर्म और दानशीलता के लिए प्रसिद्ध थे| कथा के अनुसार, नागवंश पर एक श्राप था कि उनके पुत्रों की आयु अल्पकालिक होगी| इस संकट से मुक्ति पाने के लिए जीमूतवाहन की माता ने इस विशेष व्रत का संकल्प लिया| उन्होंने निर्जला उपवास रखकर देवताओं से प्रार्थना की कि उनके पुत्र का जीवन लंबा और सुखमय हो| कहा जाता हैं कि उनकी सच्ची श्रद्धा और व्रत की शक्ति से जीमूतवाहन का जीवन सुरक्षित हुआ| यही कारण हैं कि इसे "जीमूतवाहन पुत्रिका व्रत" भी कहा जाता हैं| इस घटना के बाद यह व्रत धीरे-धीरे अन्य माताओं ने भी अपनाना शुरू कर दिया| विशेष रूप से संतान की रक्षा और जीवन को सुरक्षित रखने के लिए यह व्रत समाज में प्रचलित हो गया| इस कथा ने व्रत की महत्ता को और भी बढ़ा दिया और आज तक माताएं इसे आदर्श मानकर करती हैं|

3. यह व्रत महिलाएं क्यों करती हैं?:-

जीवित्पुत्रिका व्रत का मूल्य कारण हैं - संतान की लंबी उम्र और उनके अच्छे स्वास्थ्य की कामना|माँ के लिए उसकी संतान सबसे अनमोल होती हैं| चाहे बीटा हो या बेटी, उसका जीवन और सुरक्षा ही माँ की सबसे बड़ी चिंता होती हैं| इसीलिए माताएं इस दिन बिना अन्न और जल ग्रहण किए पुरे दिन उपवास रखती हैं| उनका विश्वास हैं कि ऐसा करने से संतान के जीवन में आने वाले कष्ट और कठिनाईयां दूर होती हैं| इस व्रत का महत्व यह भी हैं कि यह माँ और संतान के बीच की अटूट ममता को दर्शाता हैं| धर्मशास्त्रों में कहा गया हैं कि व्रत और उपवास आत्मबल, धैर्य और श्रद्धा को मजबूत बनाते हैं| माँ जब अपने बच्चे की भलाई के लिए यह कठोर तपस्या करती हैं, तो संतान के जीवन में सकारात्मक ऊर्जा और लंबी आयु का वरदान मिलता हैं| यही कारण हैं कि आज भी महिलाएं इस व्रत को बेहद श्रद्धा और विश्वास के साथ निभाती हैं| यह व्रत केवल धार्मिक दृष्टि से नहीं, बल्कि भवनात्मक दृष्टि से भी माँ के समर्पण का प्रतीक हैं|

4. जीवित्पुत्रिका व्रत कब किया जाता हैं?:-

यह व्रत हर साल भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की षष्ठी तिथि को किया जाता हैं| अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार, यह तिथि प्रायः सितंबर महीने में पड़ती हैं| इस दिन महिलाएं सूर्योदय से पहले उठकर स्नान करती हैं और पूजा की तैयारी करती हैं| व्रत का नियम हैं कि इसमें न तो अन्न खाया जाता हैं और न ही जल ग्रहण किया जाता हैं| इसलिए इसे निर्जला उपवास कहा जाता हैं| व्रत की शुरुआत प्रातः काल भगवान शिव, पार्वती और भगवान गणेश की पूजा से की जाती हैं| दोपहर में महिलाएं व्रत की कथा सुनती हैं और संतान की रक्षा के लिए प्रार्थना करती हैं| रातभर जागरण किया जाता हैं और अगली सुबह पूजा-अर्चना के बाद व्रत का पारण किया जाता हैं| यह व्रत केवल विवाहित महिलाएं ही नहीं, बल्कि अविवाहित कन्याएं भी रख सकती हैं| विवाहित महिलाएं संतान के लिए, और अविवाहित कन्याएं अच्छे पति और भविष्य की संतान के लिए यह व्रत करती हैं| इस प्रकार इसका समय और तरीका इसे विशेष बनाता हैं|

5. जीवित्पुत्रिका व्रत कैसे किया जाता हैं?:-

इस व्रत की विधि काफी कठोर मानी जाती हैं| महिलाएं सूर्योदय से पहले स्नान कर स्वच्छ वस्त्र धारण करती हैं और व्रत का संकल्प लेती हैं| इसके बाद पुरे दिन न जल पीती हैं और न ही अन्न ग्रहण करती हैं| घर में एक पवित्र स्थान पर भगवान शिव, माता पार्वती, भगवान गणेश और जीवित्पुत्रिका देवी की पूजा की जाती हैं| पूजा में दूध, दही, चावल, दूब, फुल और फल चढ़ाएं जाते हैं| महिलाएं विशेष कथा सुनती हैं जिसमें जीमूतवाहन की कथा का उल्लेख होता हैं| रातभर जागरण करना भी इस व्रत का हिस्सा हैं| अगले दिन सुबह पूजा-पाठ करके और ब्राह्मणों को भोजन कराकर व्रत का समापन किया जाता हैं| इस व्रत की विशेषता यह हैं कि इसमें केवल संतान के कल्याण की कामना की जाती हैं| माँ की यह कठोर साधना संतान के जीवन को संकटों से बचाने का प्रतीक मानी जाती हैं| इसी कारण महिलाएं इस व्रत को पुरे विश्वास और नियमपूर्वक करती हैं|

6. जीवित्पुत्रिका व्रत की धार्मिक मान्यता:-

हिंदू धर्म में हर व्रत और त्यौहार का एक विशेष धार्मिक महत्व होता हैं| जीवित्पुत्रिका व्रत को संतान की रक्षा के लिए सबसे शक्तिशाली व्रतों में से एक माना जाता हैं| धर्मशास्त्रों और पुराणों में उल्लेख मिलता हैं कि यह व्रत संतान की जलवायु को दूर कर उन्हें दीर्घायु प्रदान करता हैं| मान्यता हैं कि इस व्रत को करने वाली महिला की संतान किसी भी अकाल मृत्यु या संकट से सुरक्षित रहती हैं| माता पार्वती को इस व्रत की अधिष्ठानी देवी माना गया हैं और उनसे संतान की दीर्घायु का आशीर्वाद माँगा जाता हैं| यही कारण हैं की महिलाएं पूरी श्रद्धा और निष्ठा से यह व्रत करती हैं| धार्मिक दृष्टि से यह व्रत केवल एक तपस्या नहीं, बल्कि मातृत्व की शक्ति का प्रतीक भी हैं| जीवित्पुत्रिका व्रत इस बात को स्थापित करता हैं कि माँ की प्रार्थना और भक्ति में अपार शक्ति होती हैं, जो कठिन से कठिन परिस्थितियों को भी बदल सकती हैं| इसीलिए इसका महत्व आज भी उतना ही हैं जितना प्राचीन काल में था|

7. जीवित्पुत्रिका व्रत की सामाजिक मान्यता:-

धार्मिक मान्यता के साथ-साथ इस व्रत का सामाजिक पहलू भी बेहद महत्वपूर्ण हैं| यह व्रत समाज को यह संदेश देता हैं कि संतान ही परिवार और समाज की धुरी होती हैं| यदि संतान स्वस्थ और दीर्घायु हैं, तो समाज भी समृद्ध और स्थिर रहेगा| इस व्रत के अवसर पर महिलाएं एकत्रित होकर सामूहिक पूजा करती हैं, कथा सुनती हैं और आपस में अपनी भावनाएं साझा करती हैं| इससे समाज में एकता और सहयोग की भावना मजबूत होती हैं| जीवित्पुत्रिका व्रत मातृत्व की महत्ता को उजागर करता हैं और यह दर्शाता हैं कि माँ अपने बच्चे की रक्षा के लिए किसी भी कठिनाई को सहन कर सकती हैं| समाज में यह परम्परा आने वाली पीढ़ियों को भी यह सिखाती हैं कि रिश्तों का महत्व धन-सम्पत्ति से कहीं अधिक हैं| इस व्रत का सामाजिक महत्व इसलिए भी हैं क्योंकि यह परिवारों को जोड़ने और संतान के प्रति जिम्मेदारी का बोध कराता हैं|

8. जीवित्पुत्रिका व्रत में कथा का महत्व:-

किसी भी व्रत की पूर्ति उसके नियमों और कथा के श्रवण से होती हैं| जीवित्पुत्रिका व्रत में जीमूतवाहन की कथा सुनना अनिवार्य माना गया हैं| कथा के अनुसार, जीमूतवाहन ने अपने जीवन को दूसरों की रक्षा के लिए बलिदान कर दिया| उनकी माता ने इस व्रत को करके उन्हें जीवनदान दिलाया| इस कथा से यह शिक्षा मिलती हैं कि धर्म, त्याग और ममता जीवन को महान बनाते हैं| व्रत करने वाली महिलाएं सामूहिक रूप से बैठकर यह कथा सुनती हैं और इसे सुनाने से उनके मन में श्रद्धा और विश्वास और भी गहरा हो जाता हैं| कथा केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि नैतिक शिक्षा भी देती हैं| यह बच्चों और परिवार को भी यह संदेश देती हैं कि माँ की प्रार्थना और त्याग संतान के जीवन को सुरक्षित और सफल बनाते हैं| इसलिए कथा का महत्व इस व्रत में उतना ही हैं जितना व्रत रखने का|

9. जीवित्पुत्रिका व्रत के नियम और विधि:-

इस व्रत के लिए कई कठोर नियम बताए गए हैं, जिन्हें पूरी श्रद्धा से पालन करना आवश्यक हैं| सबसे पहले, व्रत रखने वाली महिलाएं सूर्योदय से पहले स्नान करती हैं और शुद्ध वस्त्र पहनती हैं| व्रत का संकल्प लेकर पुरे दिन न अन्न ग्रहण करती हैं और न जल पीती हैं| इसे निर्जला उपवास कहा जाता हैं| दिनभर महिलाएं पूजा-पाठ और कथा श्रवण में समय बिताती हैं| रातभर जागरण भी इस व्रत का हिस्सा हैं| दुसरे दिन सुबह स्नान करके भगवान शिव, माता पार्वती और जीवित्पुत्रिका देवी की पूजा की जाती हैं| पूजा के बाद ब्राह्मणों और गरीबों को भोजन और दान देकर व्रत का पारण किया जाता हैं| इस दौरान किसी भी प्रकार की असावधानी या नियमभंग व्रत की पूर्णता को प्रभावित कर सकता हैं| यही कारण हैं कि महिलाएं पूरी निष्ठा और सतर्कता से इन नियमों का पालन करती हैं|

10. जीवित्पुत्रिका व्रत करने से क्या फल मिलता हैं?:-

जीवित्पुत्रिका व्रत करने से संतान की लंबी आयु और अच्छे स्वास्थ्य का वरदान मिलता हैं| धार्मिक मान्यता हैं कि इस व्रत की शक्ति से संतान पर आने वाले सभी प्रकार के संकट टल जाते हैं| माताएं मानती हैं कि उनके बच्चे का जीवन सुखमय, सुरक्षित और सफल हो| यह व्रत माँ और संतान के बीच गहरे भावनात्मक संबंध को और मजबूत करता हैं| व्रत का फल केवल सनातन की रक्षा तक सीमित नहीं हैं, बल्कि इसे करने वाली महिला को भी मानसिक शांति और आत्मिक संतोष प्राप्त होता हैं| जब माँ सनातन की भलाई के लिए कठोर उपवास रखती हैं, तो उसके मन में विश्वास और शक्ति का संचार होता हैं| यही कारण हैं कि इस व्रत को करने वाली महिलाएं मानती हैं कि उनकी संतान के जीवन पर कभी कोई बुरा असर नहीं पड़ेगा|

11. जीवित्पुत्रिका व्रत का एतिहासिक महत्व:-

जीवित्पुत्रिका व्रत का एतिहासिक महत्व बहुत गहरा हैं| प्राचीन काल में जब चिकित्सा विज्ञान इतना विकसित नहीं था, तब माताएं अपनी संतान की सुरक्षा और दीर्घायु के लिए धार्मिक साधना और व्रतों पर निर्भर रहती थीं| जीवित्पुत्रिका व्रत इन्हीं परंपराओं का हिस्सा हैं| लोककथाओं और एतिहासिक ग्रंथो में उल्लेख मिलता हैं कि यह व्रत सदियों से उत्तर भारत की परम्पराओं में शामिल हैं| खासकर बिहार, उत्तरप्रदेश और नेपाल के राजवंशों की रानियाँ और आम महिलाएं यह व्रत करती थीं| समाज में यह व्रत इतना महत्वपूर्ण था कि इसे परिवार की परंपरा के रूप में आगे बढ़ाया जाता था| यह व्रत न केवल माताओं की भवनाओं का प्रतीक हैं, बल्कि यह दर्शाता हैं कि मातृत्व को भारतीय संस्कृति में कितना ऊंचा स्थान दिया गया हैं| एतिहासिक रूप से यह व्रत समाज को जोड़ने और संतान की महत्ता को स्थापित करने का भी माध्यम बना|

12. जीवित्पुत्रिका व्रत में उपवास का महत्व:-

इस व्रत की विशेषता एक्स कठोर उपवास हैं| महिलाएं पुरे दिन न तो अन्न ग्रहण करती हैं और न ही जल पीती हैं| यह निर्जला उपवास साधारण उपवासों से अधिक माना जाता हैं| उपवास केवल शारीरिक संयम ही नहीं, बल्कि मानसिक और आत्मिक शुद्धि का भी प्रतीक हैं| जब माँ अपने बच्चे की भलाई के लिए इतनी कठिन साधना करती हैं, तो यह उसके संकल्प और प्रेम को दर्शाता हैं| उपवास का वैज्ञानिक दृष्टि से भी महत्व हैं| उपवास का वैज्ञानिक दृष्टि से भी महत्व हैं| उपवास से शरीर में एक प्रकार की डीटाक्स प्रक्रिया होती हैं, जिससे स्वास्थ्य लाभ मिलता हैं| वहीँ आध्यात्मिक दृष्टि से उपवास मन को एकाग्र करता हैं और आस्था को मजबूत बनाता हैं| जीवित्पुत्रिका व्रत के लिए किसी भी त्याग से पीछे नहीं हटती| यही उपवास इस व्रत को और भी विशेष बना देता हैं|

13. जीवित्पुत्रिका व्रत से जुड़ी मान्यताएं:-

इस व्रत से जुड़ी कई मान्यताएं हैं| सबसे प्रमुख मान्यता यह हैं कि इस व्रत को करने से संतान की आयु बढ़ती हैं और उन्हें किसी भी प्रकार की अकाल मृत्यु का भय नहीं रहता| कहा जाता हैं कि जो महिला पूरी श्रद्धा और नियम से यह व्रत करती हैं, उसके बच्चों के जीवन में कभी कोई बड़ा संकट नहीं आता| एक अन्य मान्यता यह हैं कि अविवाहित कन्याएं यदि व्रत करें, तो उन्हें योग्य पति और सुखी वैवाहिक जीवन का आशीर्वाद मिलता हैं| लोक मान्यता के अनुसार, इस दिन व्रत रखने वाली अहिलाओं के परिवार में सुख-शांति और समृद्धि भी आती हैं| कई लोग यह भी मानते हैं कि इस व्रत के प्रभाव से संतान न केवल लंबी उम्र पाती हैं, बल्कि वे अपने जीवन में सफलता और सम्मान भी अर्जित करते हैं| ये मान्यताएं ही इस व्रत को और अधिक लोकप्रिय बनाती हैं|

14. जीवित्पुत्रिका व्रत का आधुनिक समय में महत्व:-

आज के आधुनिक युग में भी जीवित्पुत्रिका व्रत का महत्व कम नहीं हुआ हैं| भले ही विज्ञान और चिकित्सा बहुत आगे बढ़ चुके हैं, लेकिन माताएं आज भी अपने बच्चों की सरक्षा के लिए इस व्रत को करती हैं| यह व्रत केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि माँ और संतान के बीच के गहरे रिश्ते का प्रतीक हैं| आज की महिलाएं व्यस्त जीवन और नौकरी के बीच भी इस व्रत को समय निकालकर पूरी श्रद्धा से करती हैं| आधुनिक समाज में यह व्रत आने वाली पीढ़ियों को यह सिखाता हैं कि संतान का जीवन सबसे कीमती हैं| यह परंपरा परिवार और संस्कृति को जोड़ने का काम भी करती हैं| इसके माध्यम से माताएं अपनी संतान को भारतीय परंपराओं और संस्कारों से भी परिचित कराती हैं| इसलिए इसका महत्व आज भी उतना ही हैं जीता प्राचीन समय में था|

* निष्कर्ष:-

जीवित्पुत्रिका व्रत केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि माँ के त्याग, प्रेम और ममता का जीता-जागता प्रतीक हैं| यह व्रत दर्शाता हैं कि माँ अपनी संतान की सुरक्षा और लंबी आयु के लिए किसी भी कठिनाई से समझौता कर सकती हैं| प्राचीन काल में जब चिकित्सा और विज्ञान इतने विकसित नहीं थे, तब माताएं अपनी संतान को सुरक्षित रखने के लिए ईश्वर की शरण में जाती थीं और कठोर उपवास रखती थीं| यही परंपरा आज भी उतनी ही श्रद्धा और विश्वास के साथ निभाई जाती हैं|

जीवित्पुत्रिका व्रत की कथा, उसकी मान्यताएं और उसकी विधि सब मिलकर हमें यह संदेश देते हैं कि संतान ही परिवार और समाज की सबसे बड़ी संपत्ति हैं| यदि संतान स्वस्थ और दीर्घायु हैं, तो परिवार समृद्ध और खुशहाल रहता हैं| यही कारण हैं कि यह व्रत केवल धार्मिक दृष्टि से ही नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं|

आज के आधुनिक समय में भी यह व्रत माँ और संतान के बीच के अटूट संबंध को और गहरा करता हैं| यह हमें याद दिलाता हैं कि तकनीक और आधुनिकता चाहे जितनी भी आगे बढ़ जाए, परंपराओं का महत्व की महानता, भारतीय संस्कृति की गहराई और आस्था की शक्ति का अद्भुत उदहारण हैं| इसलिए इसे सदियों से निभाया जा रहा हैं और आने वाली पीढियां भी इसे आस्था और विश्वास के साथ निभाती रहेंगी|




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