"झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई वीरता की वीरांगना: संघर्ष और बलिदान की अद्भुत गाथा"

 *  प्रस्तावना  *

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अगर किसी महिला योद्धा का नाम सबसे पहले  याद आता हैं तो वह हैं झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई| उनकी बहादुरी, साहस और देशभक्ति ने न केवल अंग्रेजों को चुनौती दी, बल्कि भारत की आने वाली पीढ़ियों को आजादी के लिए लड़ने का जोश भी दिया| रानी लक्ष्मीबाई बचपन से ही निर्भीक और युद्धकला में निपुण थीं| उन्होंने तलवारबाजी, घुड़सवारी और रणकौशल को अपने जीवन का हिस्सा बनाया|



1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में उनकी भूमिका सबसे अहम रही| अंग्रेजों की "लैप्स पॉलिसी" ( Doctrine of Lapse ) के खिलाफ उन्होंने खुलकर विद्रोह किया और अपने राज्य की रक्षा के लिए डटकर मुकाबला किया| उनके निडर स्वभाव और जुझारूपन ने उन्हें "भारत की वीरांगना" का दर्जा दिया|

झाँसी की रानी ने यह साबित किया कि स्त्रियाँ केवल परिवार तक सीमित नहीं हैं, बल्कि वे राष्ट्र और संस्कृति की रक्षा में भी अग्रसर रह सकती हैं| आज भी उनकी गाथा हर भारतीय के डील को गर्व से भर देती हैं|

हम इस ब्लॉग में विस्तार से कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं के माध्यम से उनकी अद्भुत गाथा को समझते हैं|

1. बचपन और असली नाम:-

रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर 1828 को वाराणसी में हुआ था| उनका असली नाम मणिकर्णिका तांबे था, जिन्हें प्यार से 'मनु' कहा जाता था| उनके पिता का नाम मोरोपंत तांबे और माता का नाम भागीरथी बाई था| मनु बचपन से ही तेजस्वी और निडर स्वभाव की थीं| माँ के जल्दी निधन के बाद उनका पालन-पोषण पिता ने किया| उनका बचपन वाराणसी और बाद में झाँसी के नजदीक बिताया गया| मनु को साधारण खेलों की बजाय तलवारबाजी, घुड़सवारी और धनुष चलाने में अधिक रूचि थीं| यही कारण था कि वह अपने हमउम्र बच्चों से बल्कुल अलग दिखती थीं| उस समय में बेटियों को घरेलू कार्यों तक सीमित माना जाता था, लेकिन मनु ने अपने आत्मबल और साहस से इस सोच को चुनौती दी| उन्होंने बचपन से ही यह दिखा दिया था कि उनका जीवन साधारण नहीं होगा, बल्कि वे आने वाले समय में किसी बड़े उद्देश्य के लिए जन्मी हैं| उनकी यही बाल्यकालीन विशेषताएं आगे चलकर उन्हें भारत की सबसे महान वीरांगना बनने में सहायक बनीं|

2. शिक्षा और युद्धकला:-

मनु का बचपन संस्कृत, धर्मग्रंथों और युद्धकला की शिक्षा से जुड़ा रहा| उनके पिता मोरोपंत स्वयं पेशवा बाजीराव के प्रशासन में कार्यरत थे, इसलिए उन्हें दरबार और सैन्य वातावरण का अनुभव बचपन से ही मिला| मनु ने पढ़ाई के साथ-साथ शस्त्र चलाने और घुड़सवारी की भी विशेष शिक्षा ली| उस समय की सामाजिक परिस्थितियों में यह असामान्य था कि कोई लड़की तलवारबाजी सीखे| लेकिन मनु ने यह साबित कर दिया कि महिलाओं की क्षमताएं किसी भी प्रकार से पुरुषों से कम नहीं हैं| उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे दो तलवारों को एक साथ चलाने में निपुण थीं| घोड़े की पीठ पर सवार होकर तेज गति से दौड़ाना और फिर चलते हुए निशाना लगाना उनकी अद्भुत कला थी| युद्धकला की इस दक्षता ने ही उन्हें आगे चलकर रणभूमि में अंग्रेजों के सामने टिकने का सामर्थ्य दिया| शिक्षा और युद्धकला का यह अद्भुत संयोजन उन्हें एक असाधारण व्यक्तित्व प्रदान करता था|

3. विवाद और झाँसी की रानी बनना:-

मनु का विवाह 1842 में झाँसी के राजा गंगाधर राव से हुआ| विवाह के बाद उन्हें लक्ष्मीबाई नाम दिया गया और वे झाँसी की रानी बन गई| शादी के बाद भी उन्होंने अपने आत्मविश्वासी और साहसी स्वभाव को नहीं छोड़ा| वे दरबार की नीतियों में भी रूचि रखती थीं और झाँसी के प्रशासन में गहरी समझ रखती थीं| गंगाधर राव एक विद्वान् और शांत स्वभाव के राजा थे, जबकि लक्ष्मीबाई साहसी और निर्भीक रानी थीं| दोनों के स्वभाव का यह संतुलन राज्य के लिए लाभकारी साबित हुआ| रानी लक्ष्मीबाई प्रजाजनों के बीच अत्यधिक लोकप्रिय थीं क्योंकि वे हमेशा उनके दुःख-दर्द को समझतीं और समाधान करतीं| उनका झुकाव धर्म और संस्कृति की ओर भी था, लेकिन साथ ही वे प्रगतिशील विचारधारा रखती थीं| विवाह ने उनके जीवन को नया मोड़ दिया और उन्हें वह मंच दिया, जहाँ से वे आने वाले समय में पुरे भारत की प्रेरणा बन सकीं|

4. गोद लिए पुत्र दामोदर राव:-

रानी लक्ष्मीबाई और राजा गंगाधर राव का एक पुत्र हुआ, लेकिन दुर्भाग्यवश वह जन्म के कुछ समय बाद ही चल बसा| इस घटना से राजा गंगाधर राव अत्यंत दुखी हुए| पुत्र की मृत्यु के बाद उन्होंने अपने रिश्तेदार का एक बालक दत्तक लिया, जिसका नाम दामोदर राव रखा गया| रानी लक्ष्मीबाई ने दामोदर राव को स्नेहपूर्वक पाला और उसे झाँसी का उत्तराधिकारी घोषित किया| लेकिन अंग्रेजों ने "लैप्स पॉलिसी" के तहत इस दत्तक पुत्र को मान्यता देने से इनकार कर दिया| अंग्रेजों का यह तर्क था कि दत्तक संतान को उत्तराधिकारी का अधिकार नहीं मिल सकता| यहीं से झाँसी की रानी और अंग्रेजों के बीच टकराव की नींव रखी गई| रानी लक्ष्मीबाई के लिए यह केवल व्यक्तिगत अपमान नहीं था, बल्कि उनके राज्य की स्वतंत्रता और अस्मिता का प्रश्न भी था| यही कारण था कि उन्होंने अंग्रेजों के आगे झुकने से साफ मना कर दिया और और "मै अपनी झाँसी नहीं दूंगी" का नारा दिया|

5. अंग्रेजों की "लैप्स पॉलिसी" और अन्याय:-

अंग्रेजों के गवर्नर लॉर्ड डलहौजी "Doctrine of Lapse" अर्थात लैप्स पॉलिसी बनाई थी| इस नीति के अनुसार अगर किसी राजा की मृत्यु बिना पुत्र के हो जाती थी, तो उसका राज्य ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन कर लिया जाता था| इस नीति ने कई भारतीय रियासतों को प्रभावित किया, जिनमें झाँसी भी शामिल था| जब गंगाधर राव की मृत्यु हुई, तो रानी ने  दामोदर राव को उत्तराधिकारी बनाया| लेकिन अंगेजों ने इस गोद लिए बच्चे को मान्यता नहीं दी और झाँसी को अपने अधीन करने का प्रयास किया| रानी लक्ष्मीबाई ने इसका कड़ा विरोध किया| उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि झाँसी उनकी मातृभूमि हैं और वे उसे कभी अंग्रेजों को नहीं सौपेंगी| यह केवल एक राज्य की बात नहीं थीं, बल्कि भारतीय गौरव और स्वाभिमान का प्रश्न था| अंग्रेजों के अन्यायपूर्ण रवैये ने रानी को अंग्रेजों के खिलाफ खड़ा होने के लिए मजबूर किया| यही नीति 1857 के संग्राम का सबसे बड़ा कारण बनी|

6. 1857 का संग्राम और झाँसी का किला:-

1857 का स्वतंत्रता संग्राम भारत के इतिहास का पहला बड़ा संगठित विद्रोह था| इसमें झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की भूमिका सबसे प्रमुख रही| जब उत्तर भारत के कई हिस्सों में विद्रोह की चिंगारी भड़की, तब झाँसी भी इससे अछूती नहीं रही| रानी लक्ष्मीबाई ने अपने सैनिकों को संगठित किया और झाँसी के किले को युद्ध की तैयारी के लिए मजबूत किया| अंग्रेजों ने झाँसी पर कब्जा करने के लिए कई बार आक्रमण किया, लेकिन रानी और उनकी सेना ने उन्हें कड़ी टक्कर दी| झाँसी का किला एक मजबूत दुर्ग था और रानी की नेतृत्व क्षमता ने इसे और भी अभेद्य बना दिया| रानी न केवल युद्ध की योजनाएं बनाती थीं, बल्कि स्वयं मैदान में उतरकर सैनिकों का उत्साह भी बढ़ाती थीं| उनका जोश और निडरता देखकर सैनिक दोगुने उत्साह से लड़ते थे| 1857 के संग्राम ने रानी को पुरे भारत में स्वतंत्रता की प्रतीक बना दिया|

7. रानी की वीरता और तलवारबाजी:-

रानी लक्ष्मीबाई की सबसे बड़ी विशेषता उनकी अद्भुत तलवारबाजी और युद्धकला थी| वे दो तलवारों को एक साथ चलाने में माहिर थी और घोड़े की पीठ पर सवार होकर शत्रुओं का सामना करती थीं| युद्ध के दौरान उन्होंने कई बार अपने सैनिकों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ाई लड़ी| अंग्रेज भी उनकी वीरता को देखकर हैरान रह जाते थे| वे निडर होकर रणभूमि में प्रवेश करतीं और अपनी रणनीति से दुश्मनों को मात देतीं| उनके साहस का सबसे बड़ा प्रमाण यह हैं कि उन्होंने अपने पुत्र दामोदर राव को अपनी पीठ पर बांधकर घोड़े पर सवार होकर युद्ध किया| यह दृश्य आज भी भारतीय इतिहास का सबसे गौरवशाली क्षण माना जाता हैं| उनकी तलवारबाजी और युद्धकला ने उन्हें "भारत की जोन ऑफ आर्क" की उपाधि दिलाई| लक्ष्मीबाई ने यह साबित कर दिया कि स्त्रियाँ केवल घर तक सीमित नहीं हैं, बल्कि रणभूमि में भी शत्रुओं को धुल चटा सकती हैं|

8. महिला सेना का गठन:-

रानी लक्ष्मीबाई ने अपने शासनकाल में महिलाओं को केवल परिवार और गृहस्थी तक सीमित रखने की परंपरा को तोड़ दिया| उन्होंने युद्धकला में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए "दुर्गा दल" नामक महिला सेना का गठन किया| इस सेना में झाँसी की बहादुर महिलाएं शामिल की गई, जिन्हें तलवारबाजी, धनुष चलाना, घुड़सवारी और युद्धकला का प्रशिक्षण दिया गया| इस महिला सेना की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे केवल रक्षात्मक नहीं, बल्कि आक्रामक भूमिका भी निभाती थीं| युद्ध के समय ये महिलाएं रानी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर अंगेजों का मुकाबला करती थीं| इस कदम से न केवल झाँसी की सुरक्षा मजबूत हुई, बल्कि समाज में महिलाओं के प्रति सोच भी बदली| महिला सेना का गठन उस समय महिला सशक्तिकरण का सबसे बड़ा उदहारण था| यह सेना रानी के नेतृत्व में अंग्रेजों के विरुद्ध वीरतापूर्वक लड़ी और इतिहास में महिलाओं की शक्ति और साहस का प्रतीक बन गई|

9. अंग्रेजों के साथ संघर्ष:-

रानी लक्ष्मीबाई का अंग्रेजों से संघर्ष लंबा और कठिन था| अंग्रेजों ने झाँसी को अपने कब्जे में लेने के लिए कई बार आक्रमण किया| उन्होंने किले को चारों ओर से घेर लिया और आधुनिक तोपखाने का इस्तेमाल किया| लेकिन रानी ने हर नहीं मनी| वे सैनिकों के बीच जाकर उनका उत्साह बढ़ातीं और स्वयं तलवार हाथ में लेकर रणभूमि में उतरतीं| अंग्रेजों की शक्ति और संसाधन अधिक थे, फिर भी रानी की नेतृत्व क्षमता और सैनिकों की निष्ठा ने अंग्रेजों को कई बार पीछे हटने पर मजबूर कर दिया| झाँसी का यह संघर्ष पुरे भारत में स्वतंत्रता की चेतना का प्रतीक बना| जब अंततः अंग्रेजों ने झाँसी का किला तोड़कर कब्जा कर लिया, तब भी रानी ने हार मानने के बजाय ग्वालियर की ओर बढ़कर संघर्ष जरी रखा| उनका यह संघर्ष भारतीय इतिहास की सबसे प्रेरणादायक घटनाओं में गिना जाता हैं|

10. ग्वालियर की ओर बढ़ना:-

झाँसी का किला अंग्रेजों के कब्जे में जाने के बाद भी रानी लक्ष्मीबाई ने हार स्वीकार नहीं की| वे अपने पुत्र दामोदर राव को पीठ पर बांधकर और कुछ वफादार सैनिकों के साथ ग्वालियर की ओर बढ़ीं| ग्वालियर उस समय रणनीतिक दृष्टि से बहु महत्वपूर्ण स्थान था और वहां भी विद्रोह की लहर उठ चुकी थी| रानी ने ग्वालियर पहुँचकर विद्रोही सेना से संपर्क साधा और अंग्रेजों को चुतौती देने की योजना बनाई| उन्होंने सैनिकों की संगठित किया और ग्वालियर किले पर अधिकार करने का प्रयास किया| ग्वालियर की ओर उनका बढ़ना इस बात का प्रतीक था कि वे पराजय से घबराने वाली नहीं, बल्कि हर परिस्थिति से विद्रोही सेना का मनोबल बढ़ा और अंग्रेजों के लिए यह एक नई चुनौती बन गई| यह कदम दर्शाता हैं कि रानी केवल झाँसी की नहीं, बल्कि पुरे भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहीं थीं|

11. रानी लक्ष्मीबाई का अंतिम युद्ध:-

18 जून 1858 को ग्वालियर के पास कोटा-की-सराय में रानी लक्ष्मीबाई ने अपना अंतिम युद्ध लड़ा| इस युद्ध में उन्होंने अपने साहस और युद्धकला का अद्भुत प्रदर्शन किया| अंग्रेजों की विशाल और आधुनिक सेना के सामने भी वे घोड़े पर सवार होकर तलवार लहराती रहीं| उन्होंने अपने पुत्र को सुरक्षित रखते हुए कई अंग्रेज सैनिकों को रणभूमि में परास्त किया| लेकिन संख्या और हथियारों के अभाव में अंततः रानी गंभीर रूप से घायल हो गई| घायल होने के बावजूद उन्होंने पीछे हटने से इनकार कर दिया और अंतिम सांस तक लड़ती रहीं| उनका यह बलिदान पुरे भारत के लिए प्रेरणा बन गया| वे केवल 29 वर्ष की आयु में शहीद हुई, लेकिन उनकी वीरता ने उन्हें अमर बना दिया| रानी लक्ष्मीबाई का अंतिम युद्ध भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का सबसे गौरवपूर्ण अध्याय हैं|

12. शौर्य और बलिदान:-

रानी लक्ष्मीबाई का जीवन शौर्य और बलिदान का अद्भुत उदहारण हैं| उन्होंने कभी भी व्यक्तिगत सुख-सुविधा को महत्व नहीं दिया, बल्कि हमेशा राष्ट्र और मातृभूमि की रक्षा को प्राथमिकता दी| जब अंग्रेजों ने झाँसी को हड़पने की कोशिश की, तब रानी ने साफ कहा- "मै अपनी झाँसी नहीं दूंगी|" यह वाक्य उनके अदम्य साहस का प्रतीक हैं| उन्होंने अपने पुत्र दामोदर राव को पीठ पर बांधकर घोड़े पर सवार होकर रणभूमि में लड़ाई लड़ी, जो मातृत्व और देशभक्ति का अद्वितीय संगम था| घायल होने के बाद भी उन्होंने पीछे हटने से इनकार किया और अंतिम सांस तक अंग्रेजों का डटकर सामना किया| उनकी शहादत केवल झाँसी की रक्षा के लिए स्वतंत्रता का संदेश थी| उनके बलिदान ने यह सिद्ध किया कि सच्चा देशभक्त अपने प्राणों की आहुति देकर भी राष्ट्र की मर्यादा की रक्षा करता हैं| अंग्रेज भी उनकी वीरता के कायल थे और जनरल ह्यू रोज ने कहा था कि लक्ष्मीबाई उन सबसे बहादुर महिलाओं में से थीं जिनसे अंग्रेजों का सामना हुआ| उनका शौर्य और बलिदान आज भी हर भारतीय को प्रेरणा देता हैं|

13. ब्रिटिशों की नजर में रानी:-

रानी लक्ष्मीबाई केवल भारतीयों के लिए ही नहीं, बल्कि अंग्रेजों के लिए भी अद्वितीय व्यक्तित्व थीं| अंग्रेज उन्हें अपने साम्राज्य के लिए सबसे बड़ी चुनौती मानते थे| उनकी युद्धकला, रणनीति और साहस से अंग्रेज कई बार हिल गए थे| अंग्रेज सेनापति जनरल ह्यु रोज ने उनके बारे में लिखा था कि लक्ष्मीबाई "विद्रोह की सबसे खतरनाक और सबसे बहादुर महिला नेता" थीं| यह स्वीकारोक्ति बताती हैं कि दुश्मन भी उनकी वीरता का सम्मान करते थे| अंग्रेज अधिकारीयों ने यह माना कि रानी का नेतृत्व और उनका अदम्य साहस 1857 के विद्रोह को और भी प्रबल बनाने में सहायक रहा| वे जानते थे कि रानी केवल झाँसी की रक्षा नहीं कर रहीं, बल्कि पुरे भारत की स्वतंत्रता की मशाल बन चुकी हैं| अंगेजों के लिए रानी लक्ष्मीबाई का साहस और विद्रोही स्वभाव इतना प्रभावशाली था कि उनकी मृत्यु के बाद भी वे भय और सम्मान से याद की जाती रहीं| यह तथ्य दर्शाता हैं कि सच्चा वीर वही होता हैं, जिसकी ताकत को दुश्मन भी मान्यता देने पर मजबूर हो|

14. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर प्रभाव:-

रानी लक्ष्मीबाई का योगदान केवल 1857 की क्रांति तक सीमित नहीं था, बल्कि उनके बलिदान ने आने वाली पीढ़ियों को स्वतंत्रता संग्राम के लिए प्रेरित किया| जब उन्होंने अंग्रेजों का सामना किया और अंतिम सांस तक मातृभूमि की रक्षा कि, तो यह घटना पुरे भारत में प्रतिरोध का प्रतीक बन गई| उनका साहस किसानों, सैनिकों और सामान्य जनता तक में नई चेतना जगाने वाला था| रानी के शौर्य ने यह संदेश दिया कि अंग्रेजों को हराना असंभव नहीं हैं, बस संगठित होकर संघर्ष करने की आवश्यकता हैं| महात्मा गाँधी, नेताजी सुभाष चंद्र बोस और भगत सिंह जैसे स्वतंत्रता ने भी उनके बलिदान से प्रेरणा ली| उनका नाम स्वतंत्रता आंदोलन की रैलियों और नारों में गूंजता रहा| महिलाओं के लिए रानी लक्ष्मीबाई विशेष प्रेरणा बन गई, क्योंकि उन्होंने यह साबित किया की देश की आजादी की लड़ाई केवल पुरुषों का कर्तव्य नहीं, बल्कि स्त्रियाँ भी इसमें अग्रणी भूमिका निभा सकती हैं| इस प्रकार, रानी का संघर्ष भारत की स्वतंत्रता की गाथा में स्थायी और अमिट छाप छोड़ गया|

15. आज की पीढ़ी के लिए प्रेरणा:-

रानी लक्ष्मीबाई आज की पीढ़ी के लिए केवल इतिहास का हिस्सा नहीं, बल्कि प्रेरणा का स्रोत हैं| उन्होंने जिस साहस, आत्मविश्वास और दृश निश्चय से अंग्रेजों का सामना किया, वह हर युवा को जीवन की चुनौतियों से जूझने की शक्ति देता हैं| आज के समय में जब हम तकनीकी और सामाजिक बदलावों से गुजर रहे हैं, तब रानी का जीवन हमें यह सिखाता हैं कि कठिन परिस्थितियों में भी हार नहीं माननी चाहिए| वे यह संदेश देती हैं कि सच्ची सफलता और पहचान केवल संघर्ष से मिलती हैं| महिलाओं के लिए रानी लक्ष्मीबाई विशेष रूप से प्रेरणादायक हैं, क्योंकि उन्होंने यह साबित किया कि स्त्रियाँ केवल परिवार तक सीमित नहीं, बल्कि राष्ट्र की रक्षा में भी अग्रणी भूमिका निभा सकती हैं| स्कूलों, कॉलेजों और प्रतियोगी परीक्षाओं में रानी की गाथा आज भी पढ़ाई जाती है ताकि युवाओं में देशभक्ति और आत्मबल की भावना जागृत हो| उनका जीवन यह सिखाता हैं कि यदि दृश संकल्प हो तो कोई भी बाधा असंभव नहीं रहती| वास्तव में, रानी लक्ष्मीबाई आज भी हर भारतीय के डील में साहस, देशप्रेम और आत्मसम्मान का प्रतीक बनी हुई हैं|

*  निष्कर्ष:-

रानी लक्ष्मीबाई का जीवन भारतीय इतिहास की सबसे प्रेरणादायक गाथाओं में से एक हैं| वे केवल झाँसी की रानी नहीं थीं, बल्कि भारत की आजादी के आंदोलन की पहली महिला वीरांगना के रूप में जानी जाती हैं| उनका बचपन से लेकर युवावस्था तक का सफर साहस, अनुशासन और आत्मबल से भरा हुआ था| विवाह के बाद भी उन्होंने राजकाय और युद्धकला दोनों में अपनी दक्षता सिद्ध की| अंग्रेजों की अन्यायपूर्ण नीतियों के विरुद्ध उनका विद्रोह इस बात का प्रमाण हैं कि वे अपने अधिकारों और राष्ट्र की गरिमा से समझौता नहीं करतीं थीं|

1857 की क्रांति में उनकी भूमिका ने यह सिद्ध किया कि भारतीय महिलाएं केवल गृहस्थ जीवन तक सीमित नहीं, बल्कि मातृभूमि की रक्षा के लिए तलवार भी उठा सकती हैं| उनका प्रसिद्ध वाक्य "मैं अपनी झाँसी नहीं दूंगी" आज भी हर भारतीय के हृदय में गूंजता हैं| रानी लक्ष्मीबाई ने न केवल अंग्रेजों को कठिन चुनौती दी, बल्कि अपने बलिदान से पुरे राष्ट्र को स्वतंत्रता का सपना देखने के लिए प्रेरित किया|

आज की पीढ़ी के लिए रानी लक्ष्मीबाई केवल एक एतिहासिक व्यक्तित्व नहीं, बल्कि आत्मविश्वास, साहस और समर्पण की मूर्ति हैं| उनका जीवन हमें यह सिखाता हैं कि चाहे परिस्थितियां कितनी भी कठिन क्यों न हों, दृश निश्चय और साहस से उनका सामना किया जा सकता हैं| वास्तव में, वे भारत माता की अम्र सपूत और स्वतंत्रता संग्राम की अमर ज्योति हैं, जिनकी गाथा आने वाली पीढ़ियों को हमेशा प्रेरित करती रहेगी|


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